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लौटे यात्री का वक्तव्य / अज्ञेय

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     सभी जगह जो उपजाता है अन्न, पालता सब को,
     उस की झुकी कमर है।
     सभी जगह जो शास्ता है,
     जो बागडोर थामे है, उस की दीठ मन्द है-

     आँखों पर है चढ़ा हुआ मोटा चश्मा जो
     प्रायः धूमिल भी होता है।
     सभी जगह जिसकी मुट्ठी में ताक़त है
     उस का भेजा है एक ओर भेड़िये,

     दूसरी पर मर्कट का।
     सभी जगह जो रंग-बिरंगी जाज़म पर फैला कर सपनों की मनियारी
     घात लगाते हैं गाहक की,
     दिल मुर्ग़ी का रखते हैं।

     सभी जगह जो मूल्यवान् है
     सकुचा रहता है; अदृश्य, सीपी के मोती-सा,
     जो मिलता नहीं बिना सागर में डूबे :
     सभी जगह जो छिछला है, ओछा है,

     नक़ली कीमख़ाब पर सजा हुआ बैठा है लकदक
     चौंधाता आँखों को, जब तक ठोकर लगे, पैर रपटे
     या जेब कटे, नीयत बिगड़े, हो मतिभ्रंश, दिल डँसा जाय!
     सभी जगह है प्रश्न एक :

     क्या दोगे? कितना दे सकते हो?
     यही पूछते हैं जो फिर भेदक आँखों से
     लेते हैं टटोल अंटी में क्या है :
     यही दूसरे पूछ, नाप लेते हैं कितना

     लहू देह में बाक़ी होगा :
     यही तीसरे, आँक रहे जो
     मांस-पेशियों में कितना है श्रम-बल-
     (बिना छुए या टोडे जैसे चूजे॓ को गाहक टोहता है।)

     यही और, जो तिनकों को सिखलाते
     बँधी हुई गड्डी की ताक़त, किन्तु बाँधने वाला तार
     सदा अपनी मुट्ठी में रखते हैं :
     यही और, जिन की लोलुपता

     देने का आमन्त्रण सब को देती है,
     क्यों कि सिवा इस देने के बस उन को लेना ही लेना है।
     और यही वे भी, जिन की जिज्ञासा-
     कभी नहीं होती रूपायित, मुखरित

     जो अनासक्त हैं, जिन्हें स्वयं कुछ नहीं किसी से लेना है
     क्या दोगे? कितना दोगे-दे सकते हो-
     मुझे नहीं, जग-भर को, जीवन-भर को,
     प्यार? हिरोशिमा

18 दिसम्बर, 1957