भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लौहमानव / केशव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अब बनूँगा
लौहमानव
नकली हाथों से ही सही
बुनूँगा
वर्तमान और भविष्य के बीच के
सभी पुल
शापग्रस्त स्थितियों को
नहीं पहनाउंगा
नया लिबास

कोई भी मोड़
मुड़ने से पहले
गाड़ दूँगा अपने नाखून
अँधेरे की पुतलियों में

अँधेरा पोंछने के लिये तुमने
बाँटे शब्दों के रूमाल
गाँव-गाँव शहर-शहर
और बैसाखियाँ बाँटी
परिस्थितियों के अखाड़े में
उतरने के लिए

दरिया की लय में धुत्त
भुला दी थी नाव ने
डूबने की संभावना
कछुए की चाल
चलना
और उसकी खाल में
पलना
तार-तार होगा इन हाथों
तुम्हारा यह स्वयंसिद्ध मंत्र

तुम्हारे प्लेटफार्मों से छूटने वाली
गाड़ियों पर सवार होकर
नहीं लाँघूँगा
तुम्हारे हाथों निर्मित पुल
वक्त से पहले गजों जिंदगी को
नहीं लगने दूंगा
इस चालाकी का घुन

सचमुच
मैं बनूंगा अब
लौहमानव
मेरी धमनियों में खून की जगह
बहेंगी आसमानी बिजलियाँ

मेरे हाथों टूटेंगे
सभी आईने
पिलाते रहे जो मुझे
मात्र प्रतिबिंबों का ज़हर
जिन्होंने दिखाया नहीं मुझे
चेहरों के भीतर
काली फसलों का उगना
मकड़ियों का रेंगना
और नाखूनों का बढ़ना.