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वक़्त- बेदर्द मसीहा / मख़दूम मोहिउद्दीन

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दर्द की रात है
चुपचाप गुज़र जाने दो
दर्द को मरहम न बनाओ
दिल को आवाज़ न दो
नूर-ए-सहर को न जगाओ
ज़ख़्म सोते हैं तो सो रहने दो
ज़ख़्म के माथे से अम्य्तभरी उँगली न हटाओ
दिल को आराम, फफोलों को सुकूँ मिलता है
वक़्त बेदर्द मसीहा है
ब इक हुक्म, जगा देता है, जिला देता है
क़ब्र से उठके निकल आई मुलाक़ात की शाम
हल्क़ा-हल्क़ा-सा वो उड़ता हुआ गालों का गुलाल
भीनी-भीनी-सी वो ख़ुशबू, किसी पैरहन की
शब के सन्नाटे ने जादू की कमंदें<ref>रस्सियाँ</ref> फेंकीं
गोश-ए-दिल<ref>दिल का कोना</ref> के किसी चाक में लेटी हुई
हसरत ने जो अँगड़ाई ली
ख़्वा हिशें, रेंगती फिरती नज़र आती हैं कमीं गाहों में
कोई युसुफ़ न जुलेख़ा
ये वो महमिल है
ये रात
दर्द की कहकशाँ है के सलीबों की बरात
रात इक साक़िए बेफ़ैज़ की मानिंद गुज़रती है
गुज़र जाने दो
वक़्त !
ऊ मशफ़िक़<ref>मित्र, दयालु</ref> व मोहसीन<ref>उपकारी,सहायक</ref> क़ातिल
रात की नब्ज़ में नश्तर रख दे
रात का ख़ून है
बह जाता है
बह जाने दो ।

शब्दार्थ
<references/>