वत्स-हरण / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
यमुना-तट पर श्याम सखा सङ जाय
वन-भोजन आयोजन अतिसुखदाय
कयल समापन, मुख प्रक्षालन लेल
उतरि छहरिसँ धार किनारहि गेल
कयलनि शुचि आचमन स्वयं गोविन्द
पाछाँ देखल, नहि छल बालक-वृन्द
ने पुनि धेनु चरैछ न वेनु बजैछ
कतय छनहि चलि देल, न क्यौ अभरैछ
कने छनेक मौन भय धयलनि ध्यान
बुझलनि, ई थिक विधिक अवैध विधान
लेल चोराय सबहुकेँ कतहु नुकाय
जाँचय चाहथि, रचइछ कोन उपाय
यदि छथि सरिपहुँ अवतारी गोपाल
स्वयं अपन महिमा देखबथु तत्काल
ई मन सोचि गोप-शिशु बाछा-गाय
हरण कयल गिरि दुर्ग नुकाओल जाय
मायामय हरि लगले धयलनि ध्यान
योगेश्वरकेँ छनहि सफल सन्धान
प्रगट भेल जत जे छल सखा प्रमान
धेनु वत्स तत्सम तद्रूप निदान
ओहिना लागल चलय पूर्ववत् खेल
आङन घर-परिवार न कतहु झमेल
चरइछ वन विव बाछा-बाछी धेनु
खेलि रहल गोपाल बजबइत बेनु
माय-बाप नहि बुझलनि की छल भेद
आङन घरमे ओहिना शिशु निर्वेद
ने छल धेनु - वत्समे रंचहु भेद
चलइछ सब व्यवहार सुचारु अखेद
देखि-व्रजक बिच ओहिना सब व्यवहार
विधि पुनि जाय गुहाक निहारल द्वार
ओहिना ग्वाल-बाल सङ बाछा गाय
एनमेन पुनि कोना ओतहु समुदाय
मायामय प्रभु माया अपन पसारि
नवे सृष्टि कयलनि अछि! सोचि-विचारि
बुझलनि ब्रह्मा पूर्ण ब्रह्म अवतार
हरि करता सुरहित असुरक संहार
ओ पुनि चरण-प्रणत भय कय स्तुति गान
पाबि क्षमा निज धाम कयल प्रस्थान
आनहु देवक मनमे किछु सन्देह
तकरहु दूर कयल प्रभु निःसन्देह
(इन्द्र दर्प हरण: गोवर्धन धारण)
सुरपतिहुक मनमे संशय किछु, परिचय पयबा लेल बिचार
व्रजमे किछु दिन करी अवर्षण, व्रजपति कोन रचैछ प्रकार
यदि प्रभु स्वतः, प्रभुत्व देखौता, अथवा पुजता हमरहि मूर्त्ति
तखन हमहि उमड़ाय सघन घन कय देबनि हुनि इच्छा पूर्ति
वर्षा ऋतु भादव कादवमय सघन समय कहबैछ
किन्तु बिन्दु मात्रो नहि बरिसल रौदी तेहन पड़ैछ
सिकता-रेत खेतमे देखिअ, पड़ले विकट दरारि
कृषक समाज अकाश निहारय ने घन, विन्दु न वारि
इन्द्र कुपित की भेल व्रज उपर पूजल नहि एहि बेर
करिअ प्रबंध फूल-फल जुटबिअ प्रतिमा बनय सबेर
ऐरावत पर चढ़ल इन्द्र प्रतिमा पूजथु व्रजराय
करिअ जोगारथ झटिति कुम्हार बजाबिअ ठाठ सजाय
सामाजिक जत बूढ़-सूढ़ बुझनुक आस्तिक कहु अस्तु
प्रस्तुत नंदमहर पूजा हित, लगले प्रस्तुत वस्तु
नाच-गान वाद्यक विधान पुनि अनुष्ठान-विधि ह्वैछ
पुरहित-बाभन कते कहाँ की मन्त्र पाठ सुनबैछ
वर्षा नहि होइछ तेँ इन्द्रक पूजा होन्हु विधान
अछि करबाक, कृपाबल अन-धन उपजा सकथि किसान
कृष्ण देखि कहलनि, की होइछ? कथि लय एते विधान!
मूर्ति ककर बनइछ? कथि लय पकइछ पूरी-पकवान!
कहलनि कृष्ण कने गभीर भय, रोगक बुझिअ निदान
देव-दैव की करी अहाँ सब, प्रकृतिक छी सन्तान
नदीमातृका देश अपन अछि यमुना बहबथि नीर
नहरि-छहरि निज श्रमसँ विरचिअ, रचिअ खात गंभीर,
छथि परोक्ष देवता, समक्ष प्रकृति भंडार भरैछ
गोवर्धन गिरि कत निर्झर बहि पानि पटाय सकैछ
हिनकहिसँ कत खनिज बनिज हित बस्तु प्रशस्त सजैछ
वन-वनस्पतिहु गोचर चरिहु व्रजक हित वस्तु जुटैछ
पूज्य हमर छथि गोवर्धन गिरि दैवत सहज समक्ष
की चढ़बिअ ई द्रव्य हव्य जे छथि स्वर्गस्थ परोक्ष
बालक प्रबल युक्तिसँ सबकेँ बुझा-सुझा मति फेरि
इन्द्रक पूजन बन्द कराओल, गिरि-पूजन हित बेरि
गोवर्धन पूजन आयोजन, इन्द्रक पूजन बंद
लेसि देल सुरपतिक चित्तमे क्रोधानल निर्बन्ध
उमड़ि छनहिमे घन घमंड छापल नभ क्षितिजक छोर
डुबबय पर तुलि गेल खमंडल व्रजमंडल घनघोर
छनहि छपित आकाश, प्रकाश न चान-सुरुज नहि भान
अन्धकार व्यापल नभ-भूतल सन-सन बह पवमान
झाँट-विहाड़ि, पानि-पाथर मूसलाधार घन वृष्टि
बुझि पड़ प्रलय जलामय होइत अंत विलय जत सृष्टि
गर्जन-तर्जन घनक, विद्युतक तर्जन वज्र कठोर
छनहु न विरम राति-दिन वर्षण पानि-पाथरक जोर
खेत-पथार वथान-गोठ खरिहानहु उबडुब भेल
मयदानहुक कतहु संधान न, पुहमी सागर भेल
भिजल-तितल थरथर कँपइत टपकय नख-शिख धरि बिन्दु
गोवर्धन गिरि दिस टकटक तकइत नटखट गोविन्द
इन्द्र कृत्य बुझि सुधि गो-गोपक करइत नन्दकुमार
कहलनि, सब जन सहटि एतहि चलि आउ न कष्ट-विकार
कर अंगुलि पर लेल उठाय सहज गोवर्धन छत्र
जय गिरिधर गोबर्धन-धारी! घोल मचल सर्वत्र
दिन सातहु वर्षा-वातहु नहि ककरहु कतहु कलेश
देखि लजयला इन्द्रदेव-बुझि मायामय अखिलेश
छटल मेघ दल, नभ निर्मल नहि कतहु बुन्द लव लेश
चरण गहल गिरिधरक क्षमा हित स्तुति करइत अमरेश