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वध्यता / अजित कुमार
Kavita Kosh से
बड़ी शेखी थी तुममें-
पीठी सीधी, सर ऊँचा,
सख़्त सीना,
ललकारते ही सबको चले जा रहे थे
कि
एक तीर लगा एड़ी में ।
लाल, नरम एड़ी
जन ख़ून से रँग उठी,
तुमने जाना-
घोंघे होते हैं कितने निरीह,
कितने वध्य...
सुदृढ़ कवचों के बावजूद ।