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वन: पर्व / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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हम चलब नगरकेर पार गामसँ दूरे
अछि बसल वनक सीमा सुषमासँ पूरे
ने धवल महल, ने भीत-टाट केर घेरा
अछि जतय मुक्त प्रकृतिक युग युगसँ डेरा
नहि कल-करखाना, हर-फारक तैयारी
तरु लता गुल्म जत बनल रहय भंडारी
ने नल-पानिक, ने कूप-पोखरिक आशा
झरि झरि झरने नित मेटय सभक पिपासा
ने सभा-समिति, ने पर पचक स्वर दगल
जत सुनी विहंगक कल-कूजन श्रुति-मंगल
ने मनुज - दनुज, ने जन नेता, प्रभु - सेवक
ने वर्ग - द्वन्द्व, अन्त्यज द्विज, शोषित - शोषक
जत बाघ अछैत, नचैत हरिण - दल देखी
चाननकेँ घृणा न गन्हपसारिसँ लेखी
गाछो अछि तँ खढ़-पातो संग जुड़ाइछ
काको अछि तँ कोइलीक कुहू ने हेराइछ
जत आम नीम, जूही-जवास, दल काँटो
लघु लता, महावट, लंब ताल, तृण नाटो
दुर्गम पथ रथ न, तथापि कतहु गति-रोध न
संस्था-संस्थान न शोध तदपि उद्बोधन
कृत-विकृत कुरान-पुरान, पुरा नव वेदहु
जत विविधताक एकता रसा रस-भेटहु
नगरक रागेँ, गामक द्वेषेँ अकछाइछ
निर्देष - राग वन दिस मन पुनि अकुलाइछ
हम चलब वनक दिस सत्य सनातन वासे
ने जायब सुतय पताल, न उड़य अकासे