भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वर्षा के वैभव / तेजनारायण कुशवाहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

के उतरलै घोघो लेने ई चढ़ते आखर में
ताल-तलैया बैहारॅ से पत्थर-पहार में।
घन घेरे आकाश छने
दिन-दुपहरिया-सांझ बनै
पछिमे पनसोखा सरकै सरंगॅ के आरो पार में।

तड़-तड़-तड़ बिजली तड़कै
धड़-धड़ बानर जी धड़कै

गाछ बिरिछ के पत्ता हर हर गाबै डार मलार में।

सन-सन पुरवैया लहरै
झन-झन झिंगुर शोर करै

नांचै मोर पपीहा पी-पी पिहकै नदिया पार में।

पानी-पानी सॅ गोठॅ
भेलै एक खेत सबठो
छप-छप, कल-कल, खल-ाल निकलै बस एके सुरधार में

रस-भिंगली बसती-बसती
टीकर-टांड़-उसर-परती

धरती हुलसै धान-उदड़ के अंखुआ ले उपहार में।

गोछी गाड़ै हे सिरौतिन आरी-आरी
धान रौपै हे कठौतिन धारी-धारी
आगू आगू गोछी गाड़ै रानी सिरौतिनियां
ताही पीछू गांथै आरो आनी कठौतिनियाँ
बीचे रोपनियाँ हे बारी-बारी

उमड़ि-उमड़ि मेघा जल बरसाबै
सगठे रोपनियाँ के गीत लहराबै
रझै बटोहिया सुनि के गारी
खेतवो किसनमो के आस गदर लै
बने-बने, घास-पात चास हरियैलै
सोंधियैलै मांटी बारी-कुवारी
ठनकै ठनकवा वो चमकै बिजुरिया
बरा सलोना संगै सौनी कजरिया
खेलै सामरो मने पारी-पारी

-सवर्णा महाकाव्य से