वर्षा — एक मौन आशीर्वाद / पूनम चौधरी
वर्षा
जैसे व्यथित आकाश ने
अधीर होकर झुकी धरती की पीठ पर
अपनी उँगलियों से करुणा उकेर दी हो।
न कोई उद्घोष,
न जयघोष —
बस उपेक्षित धरा को पहुँचानी हो
एक मौन सांत्वना।
बरसाती स्नेह —
उन झाड़ियों पर भी,
जो पथरीली चट्टानों के अंक में
अस्मिताहीन पल रही होती हैं।
वह सींचती है —
सूखी पत्तियों को,
जिन्हें तनुजीव भी
आश्रय योग्य नहीं समझता
उसकी हर बूँद —
जैसे किसी अज्ञात देवी की अंजलि हो,
जो बिना पूछे, बिना चुने
सबको देती है समान अधिकार।
वर्षा आती है —
कभी उद्दंड हवाओं के संग,
कभी मौन, धूसर बादलों में छिपकर,
और कभी यूँ ही —
जैसे मन के किसी कोने से
कोई क्षमा चुपचाप झरने लगी हो।
वह पूछती नहीं —
पेड़ फल देगा या नहीं,
झील में कमल खिला है या नहीं,
या मिट्टी में कीड़े हैं या नहीं।
वर्षा —
वह धर्म नहीं
जो फल की शर्त पर बाँटा जाए।
वह ईश्वर है —
जो सबसे पहले
उन्हें जल देता है
जिन्हें कोई नहीं पूछता।
जैसे ईश्वर —
पहुँचता है वहाँ भी
जहाँ नहीं की जाती प्रार्थना,
नहीं जलाए जाते दीप,
जहाँ नहीं होती है आस
कि कोई सुन रहा है।
वर्षा —
एक करुणा,
एक मौन न्याय,
एक स्वीकृति —
कि जीवन सिर्फ समर्थ का नहीं,
असमर्थ का भी अधिकार है।
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