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वसंत / सीमा 'असीम' सक्सेना

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वसंत मेरे भीतर उतर आया है
कोयल की कूक सा कुहुँकता वसंत
मेरे मन के भीतर उतर आया है
जबसे तुम्हारे होने के अहसास ने
मेरे आसपास पडाव बनाया है
शहद सा झडता है मेरी ऑंखों से
कच्चे टेसू के रंग से मेरी हथेलियॉं रंग गयी हैं
पीले फूलों सी तितली तुम्हारी स्मृतियॉं सहेजे मंडरा रही है
सौंधी सी खुशबू मेरे मन की धरा पर बिखर गई है

उमंगों के कचनार खिल उठे हैं
मेरा दिल धडकते हुए मचल उठा है
तुम बदलते मौसम की तरह
चुपचाप मेरे मन की बगिया में आकर ठिठक गये हो
मुझमें ही उलझते हुए से
तुम्हारे आते ही मन में सारे मौसम
रंग बिखेरने लगे हैं
यह पीला वसंत और भी वासंती हो गया है
सपने में भी, पल भर को, तुमसे दूर जाने का अहसास

मेरी पलकों को गीली कर देता है
और ढुलकने लगता है गालों पर
हे बहती हुई पुरवाई! जरा ध्यान से सुन ले
मैं उस नेह की डोर से बंधी मुस्कुरा उठी हूं तो
तुम जरा हौले से चलो
कहीं जमाने की नजर न लग जाये
पीले फूलों सा खिलता वसंत
अब हर मौसम में
मुझ में ही मिल जायेगा
क्योंकि वसंत मेरे मन के भीतर उतर आया है।