भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसंतः / सत्यनारायण पांडेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वसन्तः पूर्णतामेति निदाघः संप्रवर्तते।
सूक्षमवस्त्राणि रोचन्ते शीचलािन जलानि च।।
सुभगं सलिले स्नानं कस्मै कस्मै न रोचते।
शाकुन्तलस्मृतिर्यस्मिन् वैशाखी साsभिनन्द्यते।।
समग्रं भारतं वर्षं यैकत्वेन सुतन्तुना।
सीव्यत्यसौ महापुण्या वैशाखी कस्य न प्रिया।।
विशाखाभ्यां समायुक्ता संस्कृतिशाखिसुपोषिणी।
विशाखं तारकघ्नं या स्मारयत्यनिशं शुभा।।
सैषा पूर्णपयःकुम्भस्तनी मातेव वत्सला।
समेषां भवतान्नित्यं वैशाखी भविकाय नः।।