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वसन्त की रातें / अम्बर रंजना पाण्डेय

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दर्शन पढ़ने से अच्छा है कि दर्शन हो तुम्हारे; वसन्त
की इन ऊष्ण होती रातों को । मन में लिए लिए सृष्टि
भटकना ही तुषारपात है । कवि वह कितना अकेला
है, जिसका मन कविता
हो गया है और विषय भी

भीतर है । बाहर न ब्रह्म न बन्धु कोई । तुम्हें देखकर
प्रथम बार मैंने जाना फाल्गुन पंचांग का अन्तिम
महीना नहीं, सच में आता है ।
दुनिया ढोते मन का भार
उतरा । पत्र पुरातन झड़ गए । कोंपलों से भर
गए पोर-पोर । एक से दो हुए । ख़ुद को बाँटकर दो में,
फिर-फिर एक होना ही वसन्त है, शहद का छत्ता
है; हाथ तक आता और है
भ्रमरों की भरमार आँखों के
आसपास । डंक मारेंगे ये, इसकी सम्भावना भी ।