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वसन्त में इस बार / अवधेश कुमार

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पत्तियाँ बाधाएँ हैं
हिलती हुए बाधाएँ
हवा के लिए बेमानी !

पेड़ स्वीकारोक्तियाँ हैं
अविचल
ज़मीन की जीभ पर
इस वसन्त के स्वाद की
पिछले वसन्त की याद की
और भविष्य की सम्भावनाएँ हैं ।

मोटर बाधाएँ हैं
चलती धुआँ उगलती बाधाएँ

आदमी बाधा है
एक ज़िन्दा बाधा
उस वसन्त के लिए ।

वसन्त एक महीन उदास कूक-सा
भटकता हुआ
मेरी स्मृतियों के सघन उजाड़ में
विदा के काँपते हुए हाथ-सा
बहुत उतावला और ग़मगीन
एक साथ ।

एक फूल हल्का-सा मुरझाया-सा
खिला हुआ
खिलखिलाते फूलों के बीच
बहुत सारी ख़ुशियों के बीच
एक कम ख़ुशी जैसा
ख़ुशनुमा और चुप्पा एक साथ ।

वसन्त के दृश्य दबाव डालते हैं
चारों तरफ़ से मुझपर।

वे एक क़दम आगे
बढ़ाकर अपना पैर
उतरते हैं मेरी आँखों में
फिर घबराकर
अपने पैर
वापस खीच लेते हैं
वसन्त में ।