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वसन्त में रोना सुनकर / हेमन्त कुकरेती

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यह मेज़ जिस पर कुहनियाँ टेककर
मैं पीली पड़ती घास के बारे में सोच रहा हूँ
एक पेड़ की स्मृति में विकल है

कच्चे हरे रंग से छलकती
इस याद में बुरादे की गन्ध भी है
और आरी की आवाज़ से तो देखो
यह अब भी रह-रहकर काँप रही है
पेड़ की पहली-पहली कोंपलों को जैसे हवा ने छुआ
इस सिहरन को भी महसूस करो

यह वसन्त का बिगड़ना नहीं
मार्च की धूप का राख होना है
जो शब्दों के चेहरों को ढक गयी है

इस लकड़ी में कुछ काग़ज़ हैं स्याही और दर्द से काले
इसमें मेरी नावें हैं रेत में धँसी हुईं

छोटा था बहुत तो चौराहे पर गाली देते हुए लोगों
और अकेले में सिसकती आवाज़ों से
परेशान होकर अकसर पूछता
कहाँ है वह दरवाज़ा जिसकी देहरी से दुख आते हैं
और चारों तरफ़ आँसुओं की आवाजाही क्यों है!

अब भी उमड़ता है यह सैलाब
जब कोई भरे कण्ठ से कहता है
गीली आवाज़ में कोई कहानी

जैसे उलट गया हो सब कुछ

पेड़ शाखाओं को समेटता हुआ लौट आया हो
अपने बीज में...