वसन्त वर्णन / गोपालशरण सिंह
द्रुतविलम्बित
दुखद दूर हुआ हिम-त्रास है, सुखद आगत श्री मधुमास है ।
अब कहीं, दुख का न निवास है, सब कहीं बस हास-विलास है ।।1।।
दिवस रम्य, निशा रमणीय है, सब दिशा विदिशा कमनीय हैं ।
सुखद मन्द सुगन्ध समीर है, चित चहे अब शीतल नीर है ।।2।।
विविध पुष्प खिले छविवन्त हैं, अति मनोहर रंग अनन्त हैं ।
मधुप को करते मधु दान हैं, अतिथि का करते सब मान हैं ।।3।।
दुखित दीन जिन्हें हिम की व्यथा, असहनीय रही नित सर्वथा ।
मुदित हैं अति शीत-विनाश से, छूट गए अब वे यम-पाश से ।।4।।
खिल गए अब पंकज-पुंज हैं, कर रहे जिन पै अलि पुंज हैं ।
मिट तुषार गया सब सर्वथा, विशद कान्ति हुई शशि की तथा ।।5।।
भ्रमर-शब्द मनोहर गान है, सुमन ही जिन की मुसकान हैं ।
पवन कम्पि मंजु लता सब, सुखद नृत्य मनो करती अब ।।6।।
वसन्ततिलका
फूले अनार कचनार अशोक-जाल,
धारे रसाल नवपल्लव लाल लाल ।।
चम्पा-कली हर रही मनु रूप-राशि,
श्रीमद्वसन्त-नृप की वलि दीपिका-सी ।।7।।
फूले फले अब सभी द्रुम हैं सुहाते, बैठे विहंग जिनकी सुषमा बढाते ।
शोभा मनोग्य शुक के मुख की चुराए, लेते पलाश वन में मन को लुभाए ।।8।।
मंदाक्रान्ता
है पृथ्वी में अतिशय सभी ओर आनन्द छाया,
क्या पक्षी क्या पशु तरु लता है सभी में समाया ।
धीरे-धीरे अब गगन में श्री सहस्त्रांशु जाते,
मानो वे भी मुदित जग को देखते हैं मोद माते ।।9।।
पुष्पों की ले सुरभि बहता वायु है मन्द-मन्द,
लोनी-लोनी नवल लतिका कम्प पाती अमन्द ।
मानो आता निकट लख के वायु को लजातीं,
जल्दी से वे बस इसलिये शीश नीचे नवतीं ।।10।।
बैठी वृ्क्षों पर मुदित हो कोकिलें बोलती हैं,
मानो मीठी श्रवण पुट में शर्करा घोलती हैं ।
है भृंगों के सहित अति ही कुन्द का फूल भाता,
मानो मोती ललित अलकों से घिरा है सुहाता ।।11।।
शार्दूलविक्रीडित
स्वर्णाभूषण कर्णिकार जिसका अत्यन्त शोभा सना,
धारे किंशुकरूप लाल पट जो सौन्दर्यशाली घना ।
भाती कज्जल-सी ललाम जिस के है मंजु भृंगावली,
लेती मोह वनस्थली न किस को यों अंगना-सी भली ।।12।।