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वह औरत / उर्मिला शुक्ल
Kavita Kosh से
भरी दोपहर में वह
बुन रही है ठंडक
खस के तिनकों को
बांधती आँखें
क्षण भर देखती हैं
तपते सूरज को
फिर सहेजने लगती हैं
खस के बिखरे तिनके
अपनी काया को तपाकर
वह सहेज रही है ठंडक
उनके लिए जो डरते हैं
सूरज की आँच से