वह जो उभयनिष्ठ था / दीप्ति पाण्डेय
वो जो हर पहर बसाता था रेत का घर, तुम्हारे आँगन में
और निर्मम लहरों के साथ अपनी बसती दुनिया की तबाही देखता था
बिखरता, उजड़ता था बारम्बार
जिसके आँसुओं से उसकी अतरंगी नदियाँ खारी होती होंगी
लेकिन वह जो तुम्हारे प्रेम में था
कहाँ है? है कहाँ?
कहाँ है वह जिसकी पग-पग संगी होकर भी
मैं अपना परिचय नहीं दे सकती
लेकिन बीच हमारे जो उभयनिष्ठ था-वो दुःख था
अपने अस्तित्व को पिघलाकार उसके हाथों को नरमाहट दी थी मैंने
जिससे गढ़ सके वह तुम्हारे आँगन-अपना स्वप्न गेह
अब जबकि ढ़ह चुकी है उसकी दुनिया तुम्हारे गैरजिम्मेदार बहाव में
मुझे टीसता है उसकी आँखों में उमड़ता ज्वार और ढहता भाटा
तुम्हारी चंचल महत्त्वाकांक्षा के ऊँचे डेल्टे से कम नहीं था उसका हथेली भर बालू भुवन
रुकना होता है प्रिय, गति के विरुद्ध जब महसूसना होता है कोई सूक्ष्म स्पंदन
चढ़ती नदी का उन्माद,
और एक एकाकी का अवसाद
एक नहीं हो सकता
लेकिन जो लुप्त है, अतरंगी भी वही
उसके आँगन न कभी डेल्टा था न बालू भुवन
उसके हिस्से था खारापन और वह जो उभयनिष्ठ था