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वह बुजुर्ग / मनोज चौहान

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{{KKRachna | रचनाकार=

             
ईश्वर का सुमिरन ,
करता वह बुजुर्ग,
चेहरे पर प्रसन्नता,
संतोष और शांति की ,
आभा लिए,
दिख जाता था अक्सर,
गाँव के किसी भी,
रास्ते पर,
टहलते हुए l

एक अंतराल के बाद ,
गाँव गया,
तो चेहरे पर,
प्रसन्नता के भाव,
तो दिखे ,
मगर भीतर तक ,
कचोटता,
एकाकीपन,
भी झलक रहा था,
कहीं l
जीवन के अस्सी ,
से भी अधिक,
बसंत देख चुकी,
वह आँखें,
उजागर कर रही थी ,
भीतर की,
वेदना को l

वह मुखिया है,
भरे-पुरे,
और समृध,
परिवार का,
कुशलता से निर्वहन,
कर चुका है वह,
सभी जिम्मेदारियों का l

मगर जीवन की ,
कटु और अटल,
सच्चाई को,
मानना,
नहीं होता,
इतना आसान,
उम्र के इस,
पड़ाव पर l

जीवन संगिनी,
का विछोह,
अखरता है,
हमेशा l

जीवन के तमाम,
सांझे अनुभव,
दस्तक दे जाते हैं,
अक्सर,
मानस पटल पर l

गहरी ख़ामोशी लिए,
ताकता है वह,
शून्य में,
और बढ़ा लेता है,
कदम,
घर की ओर |