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वह वसंत का दिन था / रामदरश मिश्र

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वह वसंत का दिन था
एक साधना मंदिर देखने गया
तो वहाँ व्याप्त स्तब्ध चुप्पियों में खो गया
ऊब कर बाहर निकला
मंदिर के निकट के बाहरी परिसर में भी बोलना मना था
वहाँ एक विशाल वट वृक्ष था
जिसके नीचे बैठ गया दो मित्रों के साथ
कुछ बतियाना चाहा
लेकिन सामने खड़ा चुप्पी का चौकीदार भक्त
ओठ पर अंगुली रखकर
इशारे से कह रहा था-बोलना मना है
अजीब घुटन सी हो रही थी कि
कोकिल कूक उठा-कुऊ कुऊ कुऊ...
कुछ पंछियों के पंख भी
फड़फड़ाहट की भाषा में बोलने लगे
एकाएक सन्नाटे में एक संगीत व्याप गया
”अब?“
मैंने अपनी मुस्कान से चौकीदार से पूछा-
उसने भी मुस्कान से ही उत्तर दिया
“अब पंछियों का क्या किया जा सकता है साहब?“
मेरे हँसते हुए मौन ने कहा
वसंत है भाई
इसे मंदिर के मौन से नहीं बाँधा जा सकता
आदमी भले ही चुप रह जाय
लेकिन वह तो बोलेगा ही
पंछियों की, फूलों की, हवाओं की भाषा में
वह निष्क्रिय साधना की
बंद उदासी नहीं है
वह कर्ममय जीवन का
गाता हुआ उल्लास है।
-31.1.2015