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वह शख़्स(1) / शमशेर बहादुर सिंह

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आग बुझ गई वह काला
पत्थर रह गया
धुआँ बन गया- वह चित्र
अपना जो न था।
डूब भी गया वह बोझ, भारी
मन के अतल तम में।
वह छल
रँग न सका - सत्य को:
दु:ख दे गया:
दु:खमय भाव का विषाद,
मौन, बन गया। क्यों न वह
भूल ही गया,
कि जो था
मर्म-पतित इतिहास
युगों का खोखला-सा?
क्षीण स्वर में जीवन का
हीन उपहास
वह-?