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वह शतरूपा / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
एक स्त्री मुझे पलटकर देखती है एक नजर में सौ बार
देखते देखते
वह शतरूपा स्त्री बदल देती है मुझे एक ही जीवन में
अनेक बार
नाभि से जिसकी खिलता है हजार पंखुड़ियोंवाला कमल
दूधों नहाते और पूतों फलते हैं हम
एक सिर एक उदर एक विवर ढाँपे वह रूपांबरा दिखती है
मुझे सृष्टि के अनुरूप मुक्त करती हुई
एक नयी शतरूपा खेलती है गोद में मिलता है एक नये
मनु का उपहार
पलटकर देखती है हर बार वह प्रथम शतरूपा एक नजर में मुझे सौ बार
और सृष्टि के मूल से बाँध देती है।