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वही उदासी / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
फैल रही
फिर वही उदासी
झर-झर झरती
काल विवर से
अखिल धरा पर
तन-पर, मन-पर
तरुण त्वरा से
मिलकर कैसे
फूल खिलाती
चरम निविड़ में
फैलाती निजगन्ध
हवा में भीनी-भीनी
लहराती
झीनी-बीनी
सपनीली चादर
चादर ताने
सो जाता मैं
खो जाता
सपनों में
फिर वही उदासी
आती फिर-फिर