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वाक़िफ़ न अपनी रात, न अपनी सहर से मैं / सिया सचदेव
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वाक़िफ़ न अपनी रात, न अपनी सहर से मैं
अब खुद को देखती हूँ तुम्हारी नज़र से मैं
उनसे निगाह मिलते ही पल में बिखर गई
खुद को बहुत संभाल के निकली थी घर से मैं
रहती हूँ सादगी की हिफाज़त में हर घड़ी
खुद को बचाये रखती हूँ दुनिया के शर से मैं
परवान चढ़ रहा है मेरी ज़िन्दगी का क़द
इक बेल की तरह से हूँ लिपटी शजर से मैं
ये कौन सा मक़ाम तेरी चाहतों का है
हद्दे निगाह तू ही है गुजरूं जिधर से मैं
जिस से मुझे मिली है नई ज़िन्दगी सिया
क्यूँ उसका हाथ छोड़ दूँ दुनिया के डर से मैं