भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वापस आकर फिर मिलते हैं / शिवम खेरवार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हृते! छोड़कर तुम्हें अकेले कहाँ भला मैं जाऊँगा,
क्यों रोती हो? क्यों घबराती?
वापस आकर फिर मिलते हैं।

काम अधूरे निपटाकर मैं जल्दी वापस आऊँगा,
दीवाली पर साथ तुम्हारे दीपक सुमुखि! जलाऊँगा।
हाल-ख़बर की चिट्ठी रमिले! तुम्हें समय पर भेजूँगा
वापस आकर तुमको मधुरिम मोहक गीत सुनाऊँगा,

पगली! नहीं बिछड़ते हैं, बिजली-बादल घिर-घिर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं...

यही हाल मेरा भी होगा सखे! दूर जब जाऊँगा,
याद तुम्हारी सम्बल होगी जब मन को समझाऊँगा,
सुनो! नयनिके नीर बहाकर मुझको मत कमज़ोर करो,
वादा है हफ़्ते में इक दिन तुमको फ़ोन मिलाऊँगा।

हारिल के जैसे ही धरती पर जोड़े आख़िर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं...

जब घर आ जाऊँगा रुचिके! तुम्हें रुष्ट मैं पाऊँगा,
झुमके, कंगन से प्रणया! को, कोशिश कर बहलाऊँगा,
वही नाज़-नख़रे, उफ़-तौबा! गुल जैसे खिल जाएँगे,
कितना प्यारा क्षण होगा वो, जब मैं तुम्हें मनाऊँगा।

गीत गूँजते हैं इस जग में जब बिछड़े साबिर मिलते हैं।
वापस आकर फिर मिलते हैं...