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वासंती मौसम याद रहा / ज्ञान प्रकाश सिंह

वासंती मौसम याद रहा, पतझड़ का मौसम भूल गए
बाग़ों की बहारें याद रहीं, पत्तों का गिरना भूल गए।

शहर पुराना लोग नए थे, सतरंगी दुनिया क्या कहिये
वह बॉडी लैंग्वेज याद रही, अंदर की केमिस्ट्री भूल गए।

बलखाती ज़ुल्फों का चक्रव्यूह, अरमान भरा था दिलकश था
जाना तो उसमे याद रहा, आने का रास्ता भूल गए।

मादकता का वह आलम, हो गया निगाहों से ओझल
जो गीत वक़्त ने गाया था, उसका ही तरन्नुम भूल गए।

हमको अपनी ख़बर नहीं, क्या हाल सुनायें दुनिया की
आभासी दुनिया याद रही, पर असली दुनिया भूल गए।

निष्ठा प्रेम सच्चाई को, अब क्यों कर याद करे कोई
बेवक़्त कहानी लगती है, बेहतर है इनको भूल गए।