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वासना का ज्वार / दुष्यंत कुमार
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क्या भरोसा
लहर कब आए?
किनारे डूब जाएँ?
तोड़कर सारे नियंत्रण
इस अगम गतिशील जल की धार—
कब डुबोदे क्षीण जर्जर यान?
(मैं जिसे संयम बताता हूँ)
आह! ये क्षण!
ये चढ़े तूफ़ान के क्षण!
क्षुद्र इस व्यक्तित्व को मथ डालने वाले
नए निर्माण के क्षण!
यही तो हैं—
मैं कि जिनमें
लुटा, खोया, खड़ा खाली हाथ रह जाता,
तुम्हारी ओर अपलक ताकता सा!
यह तुम्हारी सहज स्वाभाविक सरल मुस्कान
क़ैद इनमें बिलबिलाते अनगिनत तूफ़ान
इसे रोको प्राण!...
अपना यान मुझको बहुत प्यारा है!
पर सदा तूफ़ान के सामने हारा है!