भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वास्तविकता / अनुभूत क्षण / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सँभलते - सँभलते...
समय तीव्र गति से गुज़रता गया!
सब व्यवस्थित बिखरता गया!
हस्तगत था अरे जो
अचानक फिसलता गया ....
हर क़दम पर
सँभलते-सँभलते!

हर तार टूटा
सँवरते-सँवरते
कि फिरफ़िर उलझता गया!
बंध हर और कसता गया;
सूत्र क्रमश: सुलझते-सुलझते
उलझता गया,
हर क़दम पर
सँवरते-सँवरते!

ज़िन्दगी कट गयी ज़िन्दगी
सीखते-सीखते,
खो गये कंठ-स्वर
चीखते-चीखते,
शास्त्र संगीत का
सीखते-सीखते!