भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विकलांग नहीं / मुक्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह बच्चा अंकुर है
मेरे और तुम्हारे बीजे हुए धान का
तलाशता रहता है वह
माँ का आँचल हर आकाश तले
सलाखें रोशनाई के धब्बे
उसके बदन से गुजरे
वह चुप हो गया सलीब जैसा
कुछ स्पर्श, धूप के टुकड़े
उसकी आँखों की उजास बने
उसने दीवारें ढहा दीं
मुक्त गगन के नीचे
वह बढ़ता ही जा रहा है
आगे-आगे और भी आगे।