विचार / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
बोया जाने के बाद हृदय में विचार के जड़ें
चाह कर भी
कभी नहीं हुआ जा सकता
विचारहीन
सालों साल से
मेरे भीतर पनप रही है विचार की वृक्ष
और मुझको डस रही है लगातार
बुद्ध, कन्फ्युशियस और मार्क्स
खदेड़ रहे हैं क़दम–क़दम फूँक–फूँक कर
सपनों में भी
थप्पड़ मारने के लिए आते हैं
जॉन ऑफ़ आर्क
लक्ष्मी बाई
वर्जिनिया वुल्फ़
और पारिजात
रसोर्इघर में, नल में, कपड़े सुखाते हुए छत में
बस में, क्लास रूम में, भीड़ में, एकान्त में
जहाँ कहीं
परछाई जैसे
मेरे साथ ही होता है
विचार
उबलता है चाय के बुलबुले के साथ
छटकती है चावल के दानों के साथ
रेशमी गुत्थी जैसी
उठ जाती है चुल्हे के ऊपर
भाप के जुलुस जैसी विचार
घर के लोगों को
पति और बच्चों कों
परोस कर देती हूँ थाली–थाली में
कचौरे में, गिलास में और प्लेट–प्लेट में
विचार
मुझ से ही लिपटकर
मेरे अन्दर ही अन्दर भीगकर
मेरे जिगर तक पहुँचकर फैली हुई है
विचार-रस
मैं घायल हूँ इसी से
कई साल, महीने और दिनों से
मुझे देखकर
मेरे रिश्तेदार, परिजन
अतिशय परेशान हैं, त्रसित हैं
और पूछ रहे हैं डाक्टरों से
‘कहाँ मिलेगी साहब विचारदंश की दवाई?’