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विचित्र जिंदगी / तरुण भटनागर

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मौत से बस एक कदम पहले,
डूबते सूरज के पास जाते हुए,
देखी थी,
क्षितिज रेखा,
फैले आकाश,
आैर सिकुड़ी जमीन के बीच।
शांत बादलों,
आैर अपने शहर के हल्ले के बीच।
भागते पक्षी,
आैर गटर किनारे सोते लोगों के बीच।
उभरते अंधेरों,
आैर रोड़ों, चौराहों की चमचमाहट के बीच।
प्रसन्न घर लौटते लोगों,
आैर डूबते सूरज के बीच।
ऊपर आैर नीचे के बीच।
सच आैर झूठ के बीच।
प्यार आैर डर के बीच।
 ़ ़ ़ ़ ़

बीच वाली,
क्षितिज रेखा,
जिस पर मैं,
मौत तक,
लटका रहा हंू,
बिजली के तार पर,
चिपककर उल्टे लटके,
चमगादड़ की तरह।



दिन रिसते हैं,
रिसते रहे हैं,
शताब्िदयों से,
गहरी काली गुफाआें में,
इस उम्मीद में,
कि वे एक दिन,
वहां रौशनी कर देंगे।
यादों की कोख में,
उन दिनों की,
ऐसी कई कहानियां,
कैद हैं,
कैद होती रही हैं,
शताब्िदयों से ़ ़ ़।



कई टुकड़े,
एक दूसरे में गंुथे।
हर टुकड़े में,
एक कहानी।
हर कहानी,
शब्द, दर शब्द ़ ़ ़।
हर शब्द के लिए तय,
उसका अपना समय।
हर समय,
क्षितिज के पार,
बर्ह्माण्ड के परे,
सोचने के पार,
जाने कहां से आता है?
पर जहां से आता है,
वहां से लाता है,
नवीनतायें आैर यादें,
जो बदल देती हैं,
उस कहानी को ़ ़ ़।



मेरे कहने पर,
बीच रास्ते में,
उसने,
मुझे कैमरे में कैद कर लिया।
फोटोगर्ाफर के डाकर् रूम से निकलकर,
बना हंू,
दीवार पर टंगी,
ब्लैक ऐण्ड व्हाइट फोटो।
पर फिर,
पता चला,
कि, कुछ दिनों बाद,
मैं,
सीपियां रंग का हो जाउंगा,
बरसात में सील सकता हंू,
डिफ्यूज़ सा होकर मिट जाउंगा,
फिर सिफर् सफेद कागज़ ही रह जायेगा,
 ़ ़ ़ ़ ़

मैं घबरा गया।
मैंने उससे कहा,
वह मुझे पहले जैसा बना दे,
पर वह,
पूछने लगा -
क्या मैं पहले की तरह सांस ले पाउंगा?
कहीं मैं धड़कना भूल तो नहीं गया?
क्या भूला तो नहीं छूकर महसूस करना?



धड़कनें फाइलों की तरह,
फाइल नहीं हो पाती हैं।
उनके बंद होने के बाद भी,
एक उम्मीद होती है,
अधूरे छूटे कामों से,
 ़ ़ ़ ़ ़ ़

गुमशुदा लोगों की तरह,
जिनकी कोई -
अंत्येष्टी, चिता, कबर् ़ ़ ़
कभी नहीं,
कहीं नहीं,
जो चाहकर भी,
नहीं पा सकते हैं,
मौत का वीज़ा।



उसे पत्र लिखते समय,
मुझे नहीं मालूम था,
कि वह मर चुका है।
पर,
रिडायरेक्ट होकर मिलने पर,
उस पत्र में,
मैंने सिफर् उसके ही शब्द पाये,
मानो बदल गये हों,
मेरे अपने शब्द,
या,
मैंने खो दी हो,
अपने ही शब्दों को पहचानने की क्षमता।
उसके शब्द,
मेरे शब्दों को मिटाकर,
या उनपर करेक्शन फ्ल्यूड लगाकर,
फिर से नहीं लिखे गये थे,
उन्होंने,
बस मेरे शब्दों का मतलब बदल दिया था।