भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विजया-पर्व / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विजयाक पर्व जकर मन-मन मे
मिलि गेल हमर अरि-वर्ग रजक कण-कण मे
जा’ धरि छल भेदक भाव देशमे जागल
जा धरि न सम्मिलित शक्ति एकमे लागल
ताबते महिष खुर आघातक आतंक
छल देव-भूमि ई पराधीनता दागल
जय महिषमर्दिनी स्वतन्त्रते! ध्वनि-ध्वनि मे
विजया क पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।1।।
हिमवानक काननसँ पंचानन वाहन
पंजा उठाय कूदल संग्रामक प्रांगण
सागर - तरंगसँ विन्ध्य-शृंगसँ संगहि
हुंकार उठल, रिपु त्रस्त समस्त नतानन
भय गेल पलहिमे ध्वस्त, हर्ष जन-जन मे
विजयाक पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।2।।
निज अंगहिसँ फुटि मधु-कैटभ मायाबी
कय रहल पूब-पश्चिमसँ घातक दावी
निद्रा-मुद्रित अद्यापि पड़ल मधुसूदन
संकटमे हमर प्रजापति, मुँहपर जाबी
चिर-स्वप्न तोड़ि जागृत प्राकृतिक नयन मे
विजया क पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।3।।
ई शुम्भ - निशुम्भ सहोदर दुइ दिस गर्जल
नोचय चाहय जननीक केश बुझि निर्वल
सुग्रीव दूत पुनि छलसँ कलबल बजइत
हे सिंह - वाहिनी! शैल शृंगपर पहुँचल
अरि - मर्दन हित गर्जओ केसरि कानन मे
विजयाक पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।4।।
जे जन - स्थानमे उपनिवेश अपनौने
बालिक बलसँ जे छल कोहराम मचौने
माया - मारीचक कनक -हरिण रचि छलसँ
मैथिली - हरण कय पार समुद्र पठौने
हे राम! अहँक अभियान सफल युग-युग मे
विजयाक पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।5।।
की वर्षक बोझ मेटाय खड्गकेर पूजन
की माटिक दुर्ग ढहाय दिग्विजय पूरण
निज गात्रासृगक न साहस से बलिदानी
की घोँटि-घोँटि पिबि विजया विजयाराधन
ई कर अशक्त की शक्त शक्ति - वन्दनमे!
विजयाक पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।6।।
ई वर्ष - वर्ष विजयाक पर्व पुनि आबओ
महिमा शक्तिक ई भक्ति समेत सुनाबओ
नीतिक वल परपक्षहुक हृदय-परिवर्तन
सभ युगमे राम-पौरुषेँ लका कंपन
युग-युग धरि रक्षित जनिकर स्मृति क्षण क्षण मे
विजयाक पर्व अछि गर्वे जकर मन-मन मे।।7।।
विच्छेदक कुटिल कैकयिक नीति विफल हो
ओ भरत-मिलापक दृश्य एतय उपगत हो
जनता - मारुति नेता रामक अनुगत हो
पुनि राम - राज्यमे पंचायतन अमर हो
नहि राग-द्वेष, भय-भेद कतहु जन जन मे।
विजयाक पर्व अछि गर्व जकर मन-मन मे।।8।।