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विदा! विदा! / अज्ञेय

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 विदा! विदा! इस विकल विश्व से विदा ले चुका!
अपने इस अतिव्यस्त जगत से जुदा हो चुका!
देख रहा हूँ मुड़-मुड़ कर-यह मोह नहीं है-
नहीं हृदय की विकल निबलता फूट रही है!
सोच रहा हूँ कल जिस को खोजते स्वयं खो जाना है-
उस निर्वेद, अतीन्द्रिय जग में क्या-क्या मुझे भुलाना है!

दिल्ली जेल, 8 नवम्बर, 1932