विदा के आँसू / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है!
हर प्रीत-नगर के कैदी की ज़ंजीर मगर रह जाती है.
मेरे परदेशी ! बिछुड़न की इस वेला में मुस्काओ तो!
गीली पलकों को एक बार आकर धीरे सहलाओ तो!
मेहमान ! विदा की वेला में सुधि व्यथा कहाँ पर बोयेगी?
आँखों की यमुना पर रह-रह राधिका प्राण की रोयेगी !
थिरकेगी मन की मीरा जब प्रति साँस-साँस पर याद लिये-
स्वर माँग पपीहरे से उसकी, मैं आऊँगा फ़रियाद लिये!
पी कहाँ ? पपीहरे की भींगी अवाज़ तुम्हें दुहराती है,
वेदना विदा की वेला में लिख रही प्यार की पाती है.
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है!
इस विदा-गीत को प्राणों का स्वर देकर कैसे गाऊँ मैं?
जब तार वीण के टूट रहे, झँकार कहाँ से लाऊँ मैं?
किसको-किसको मैं विदा करुँ ? हर मिलनेवाला जायेगा,
कल समय ज्वार के कंधों पर जाने किसको बिठलायेगा?
हर मिलनेवाला जाने के पहले पत्थर हो जाता है,
पंछी से या परदेशी से दो-चार घड़ी का नाता है !
यह नीड़ तुम्हारा ओ पंछी! वेदना पवन-पथ आती है,
कैसे जाओगे ? आँसू की वरसात उमड़ती जाती है!
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है!
जानेवाले के लिये मगर, बरसातों का कुछ मोल नहीं,
है एक हमीं, जो पाते हैं मन की बातें भी खोल नहीं.
सौ बार आँख को समझाया मत रोओ-मन घबड़ाता है,
चढ़कर आँखों की पाँखों पर यह धीर-विहग उड़ जाता है.
भर-भर जाते हैं नयन आह ! धुँधलापन छा-छा जाता है,
अन्तर का नीरव स्नेह पिघल, खारा आँसू बन जाना है!
जा रहा मुसाफ़िर डगरों की पहचानी रीति बुलाती है,
बेपीर विदा की वेला में कुछ प्रीति नहीं कह पाती है.
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है!
तुम जाओ तुमको पलकों की पँखुड़ी बिछाकर जाने दें!
तेरे पथ पर हम दीपों की आरती सजाकर जाने दें!
बस, एक माँग है ढ़ोकर भी हम सब की याद लिये जाना!
जब नीड़ पुराना याद पड़े, भूले-भटके भी आ जाना !
जूही की कलियाँ सिमट रहीं जब साँझ विदा की आयी है
सब वही-सिमटने को आतुर तेरे पग की परछाई हैं.
रह-रहे तुम्हारे चरण-चिह्न, रह रही कसक बन थाती है,
मिट जायें पतंगे चुपके से वह लौ भी है, वह बाती है.
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है !
दस्तूर यही है दुनिया का सब की आँखों का नूर गया,
जो एक लहर बनकर आया, बुलबुले बनाकर दूर गया.
छवि की 'मुमताज़' बिछुड़ती जब, फिर साज सजाकर क्या होगा?
पंकिल पलकों पर पत्थर का अब 'ताज़' बनाकर क्या होगा ?
मन आज मोम का तड़प रहा, लौ सहम रही जानेवाले !
हे निठुर ! अर्चना के स्वर ले आँखों की गंगा जल ढ़ाले !
पाषाण पूजकर क्या होगा फिर भी माला ललचाती है,
तुम जाते हो अरमानों को आने की आहट आती है.
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है !