विद्रोही कोयल / विमल राजस्थानी
यह लांछन क्यों कर की वसन्तों में कवि की कोयल बोली
इस आँधी-पानी में भी तो कवि की कोयल बोल रही है
‘कुहू-कुहू’ की मधुर गूँज से
कल तक जिसके कंठ भरे थे
जिसके स्वागत में ऋतु-पति ने
कुंज-कुंज छवि-दीप धरे थे
धूम मची थी, लुट रहे थे—
अली कलियों की खिली जवानी
‘कुहू-कुहू’ कूके जाती थी—
कवि की कोयलिया दीवानी
पर इस आँधी-पानी में भी—
तों मेरी कोयल गाती है
अन्तर इतना है—रस के बदले—
अब ज्वाला बरसाती है
ज्वाला जो आँधी के झोकों—
से दूनी होती जाती है
बूँदों की बौछार ज्वाल को
दूनी-दूनी धधकती है
झंझा झूम मानती उत्सव
कुंज-कुंज में आग लगी है
ह्रदय-ह्रदय, कोटर-कोटर में
क्रुद्ध क्रांति की ज्योति जगी है
‘कोई’ क्यों कर चौंक रहा है?
यह अचरज की बात नहीं है
आँखें खोल देख ले दुनिया
दिन है, कोई रात नहीं है
दिन--फूलों की आज़ादी का
दिन—पतझर की बर्बादी का
कोयल का पूजन होता है
वाणी का वन्दन होता है
पत्ती-पत्ती पर विद्रोहों का—
तांडव-नर्तन होता है
विप्लव की जननी कोयल का—
घर-घर अभिनंदन होता है
इस आँधी-पानी के आलम—
में भी तो कोयल गाती है
नीड़-नीड़ से तरुण पंछियों—
की टोली उमड़ी आती है
ये पंछी जो कल कूके थे
आज वारने चले जवानी
उस युग को लाने फिर
जिसका कवि राजा, कोयलिया रानी
वह ‘वसन्त’ जिसको सपने में—
भी पतझर की याद न होगी
वह सोने की स्वर्ग-पुरी जो
प्रलयों तक बर्बाद न होगी
आज़ादी की बलि-बेदी पर
पंछी चढ़ते ही जाते हैं
कुहू-कुहू के स्वर उनकी—
नस-नस में आग लगा आते हैं
कल जिसने धूँधट खोला था, आज क्षितिज-पट खोल रही है
उस पट से आने वाले को देख दिशाएं डोल रही है.