विधाता छंद / अनामिका सिंह 'अना'
1-
जुगत मिलकर करो ऐसी न मानव और नंगा हो।
न नस्ली भेद हो कोई न लफड़ा हो न दंगा हो॥
न नफरत की बयारें हों सभी का स्वास्थ्य चंगा हो।
न धर्मों के गड़ें झंडे, लगा केवल तिरंगा हो॥
2-
बहाकर स्वेद वह अपना नई फसलें उगाते हैं।
सदा भूखे रहें लेकिन क्षुधा सबकी मिटाते हैं।
दबे कर्जे गरीबी से नहीं वे चैन पाते हैं।
कृषक थक चूमते फंदा तमाशा वह बताते हैं॥
3-
कहीं कपड़ा नहीं तन पर कहीं मिलती नहीं रोटी.
नहीं मिलता निवाला तो कहें तकदीर ही खोटी॥
जहाँ में दीन का जीवन रहा घनघोर काला है।
मिला है तम उसे पग-पग न तिनकाभर उजाला है॥
4-
जलाकर प्रेम की बाती, दिया मिल प्रीति का बारो।
वहम का तम हरो सारा, अहम अपने सभी हारो॥
रहें सब लोग मिल जग में, सभी पर नेह तुम वारो।
लगा सबको गले अपने, बढ़ो संदेह को मारो॥
5-
जहाँ में जो ज़रूरी है, वही सब काम कर डालो।
सदा सद्भाव से अपना जगत में नाम कर डालो॥
सदा ही प्रेम से बोलो न तुम बनना अहंकारी।
मधुर वाणी रखो अपनी, इसी में है समझदारी॥
6-
शिकागो की सभा ने जो, सुना जयघोष भारत का।
दिखा था विश्व को सारे, समेकित रोष भारत का।
विवेकानंद का कौशल, युवाओं को सबक-सा है,
दिखा दें आज फिर बढ़कर, वही है जोश भारत का॥