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विनय / श्रीनिवास श्रीकांत
Kavita Kosh से
करीब पाँच सौ वर्ष का हुआ है
अब वह किन्नर देवदार
हिमालय के वनों का राजा है वह
बर्फ़ानी-ढलानों का एकमात्र स्वामी
बूढ़ा योद्घा
अखण्ड कुमार
जैसे थे भीष्म
अब हिलती नहीं
उसकी सुदीर्घ भुजाएँ
वह है मौन
न उसको हिला सकती हैं
अब
हिमाद्रि हवाएँ
अगर वह चल सकता
तो कभी न होने देता
दिन-दिहाड़े
पेड़ों का जातिसंहार
नीचे की ढलानों पर
उसने देखे हैं किन्नर बालाओं के
असमापनीय माल-नृत्य
वाद्य-यंत्रों पर थिरकते पाँव
और लम्बी लम्बी
नट-कथाएँ गाते
किन्नर भाट-चारण
खुले आसमान के नीचे
चकराकर पर्वतों से घिरी
धरती के मंच पर
ओ, प्रपिता देवदार!
जितने भी हमने किये हों
अतीत में पुण्य
वे सब लगें तुम्हारें वंशजों को
तुम्हारा वंश फूले-फले
वे प्रलयान्त तक बने रहें
रससिक्त।