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विभाजित / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
पूरा परिवार इकठ्ठा होकर
पडोसी से झगड़ता है
एक जाति झगड़ती है दूसरी जाति से
एक राय होकर
एक भाषा दूसरी भाषा से अकड़ती है
एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र से भिड़ता है
एक रिवाज़ टकराता है दूसरे रिवाज़ से
एक धर्म के लोग एकत्र होकर
टूट पड़ते हैं दूसरे धर्म के लोगों पर
एक देश आक्रमण कर देता है दूसरे देश पर
कहते हुए उस देश को अपना शत्रु देश
पर कोई नहीं लड़ता एकत्र होकर
मनुष्यता को बचाने के लिए
सबके गले में टँगे हैं पहचान पत्र
जिन्हें पढ़ा जाता है गम्भीरता से
और कभी नहीं पढ़ा जाता
ज़मीन से आसमान के बीच
हवा की लहराती स्लेट पर लिखी
संवेदनाओं की इबारत को
सबकी अपनी विभाजित पहचान है
कट्टरता की आग से जल रही है धरती
और लोग हरियाली के सपने पाले बैठे हैं।