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विरह मन / अमृता सिन्हा

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भीड़
हुजूम, लोगों का
भीड़ से घिरे
तुम

और
एकांत की टोह में
मुंतज़िर मैं,
अपनी दुखती पीठ
एक उदास दरख़्त से टिकाए,
बड़े बेमन से
उबाऊ दिन की सलाइयों पर
बुनने लगी हूँ
कुछ ख्वाब

अतीत को उधेड़ती
भविष्य बुनती
वर्तमान के कंधे पर सर रख
करती हूँ, इंतज़ार
कि
कब भीड़ छटे
एकांत मिले

और
मिलो तुम मुझसे
अपनी उदात्त राग लिये
पूरे आवेग के साथ
हों आलिंगनबद्ध हम
लरजते होंठ
और गूँगे शब्दों
की आड़ में।

फूट कर
बह निकलूँ मैं
पके घाव की पीव सी
ताकि
डूब सको तुम
उसकी लिजलिजी मवाद में
और महसूस कर सको
मर्म
मेरे विरहमन का।

सोख सको
अपनी गीली पलकों से
गिन-गिन
पीर
मेरा, जैसे चुगता है
पंछी
दाना, एक-एक।

मेरी कराह पर
मेरी आह पर
तुम्हारे प्यार की फूँक
नर्म सेमल की फाहों सी

मख़मली मरहम में
लिथड़ा पूरा जिस्म

तुम फैलो मेरी देह पर
पसरते किसी तरल से
चूमते मेरे कानों की लौ को
बरसो तुम
सावन की किसी पहली फुहार से।

निर्बाध बहो तुम
शुष्क, पपड़ी पड़े, सर्द होंठों के कोरों तक
सूखा पड़ा है जो अबतक गहरे
शापित कुँए-सा।

धँस जाओ मेरे मन के
हरे दलदल में
ताकि ढहती दीवारों से
झरते स्वप्न, ठहर जायें ठिठक कर
और
बच जायें पिघलने से
वे सारे
नमकीन पहाड़
जो उग आये हैं
मेरी
आँखों के आँगन में,
प्रेम के उगते सूरज के साथ।

कभी खोलूँ मैं भी
अपने घर की जंगाती खिड़कियाँ
और सुनूँ बाहरी
हवा की सुरीली तान
क्योंकि
अरसा बीत गया
कोई
राग डूबी नहीं
सुर संध्या के
रंग में।

पर,
ऐसा तो तब हो
जब भीड़ हटे
तम छटे
एकांत मिले
तुम बनो हरे-भरे दरख़्त
और
मैं लिपटूँ तुमसे लता सी
अमर बेल बन!

पर, ऐसा तो तब हो जब
भीड़ छटे, एकांत मिले!