भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विरोधी शक्तियाँ / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


घेर रहा है जग को प्रतिपल, उठता जड़ता का काला तम,
बढ़ता जाता है जीवन में, अतिशय क्रन्दन, अतिशय विभ्रम,
छाते जाते अविरल नभ में, काले, भयग्रस्त, अमा-से घन,
मति खो, अनियन्त्रित आज बना निष्प्राणित, अपमानित जीवन !

रोक रहा है कौन उठा कर, आज भुजा से जन का इंजन !
गति प्रेरक पहियों में, अवनति-हित कौन रहा है भर उलझन ?
बर्फ़ीली आँधी में जीवित मानव धधका सेंक रहा है —
कौन दिवाकर-दीपित मुख पर, परदा, ढकने, फेंक रहा है ?

किन पापों की रात क्षितिज से, पथभ्रष्टा बन उतर रही है,
डायन-सी प्रतिमा लेकर, नव युग की झोली कतर रही है,
कौन विरोधी-धारा, फैली बस्ती पर आ दौड़ रही है,
कौन विरोधी धारा, नूतन, दीवारों को तोड़ रही है ?

किसने इस क्षण आभा को कर म्लान, अँधेरे से मन जोड़ा,
अक्षय संचय जिससे रह-रह कर होता जाता है थोड़ा !
जूझो युग के सजग पथिक तुम थक जाने का अवसर न अरे,
रे नाविक ! विधि सोचो ऐसी, जिससे युग-नौका आज तरे !