विवश आदमी का बयान / प्रताप सहगल
मैं जग को समझा पाऊंगा
टिप्पणी करने से इन्कार
मैं अपना विज्ञान अनिश्चित
निश्चित लेकर
बंधा हुआ रक्तिम डोरों से
या काले दायरों के भीतर
भोग रहा हूं अपना जीवन
मेरी सांसें घर्षण खाकर
निकल रही हैं
मैं केवल उथला-उथला सा
अखबारों से चिपक-चिपक कर
उगल-उगल देता हूं बलगम
और ज़रा खामोश ठहर कर
किसी नरम-नरम चेहरे पर
अपनी दृष्टि ज़रा गड़ाकर
घूरा करता
पैना करके नाखूनों को
मैं हथेलियां भर लेता हूं
और उठाकर अपने बाज़ू
करता हूं भयानक उद्घोष
कोई क्रांति आने वाली
या आने वाला तूफान
और तभी मेरा समाज
मृग-शावक हो
किसी भी टूटे, उजड़े या अधजले
घरौंदे में
अपना अस्तित्व छुपा लेता है
और मेरी छोटी बातों को
दे नारों का रूप
उन्हें तख्ती पर लिखकर
भरी राह में कहीं टाँगकर
ध्यान भीड़ का हर लेता है.
मुझे बन्द कर इक डिब्बे में
कोई घिसा, टूटा या पिचका
ढक्कन एक लगाकर उस पर
करता है उद्घोष निरन्तर
मुझको मेरा होने से
वंचित करने का प्रयास
अन्धे दायरों में बन्द हुआ
एक निष्क्रिय बिन्दु
अन्वेषण का दम्भ तोड़कर
भटकाव में भटक-भटक कर
इन सबको भटका देता है.