भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विवाह-गीत / लुईज़ा ग्लुक / झरना मालवीय
Kavita Kosh से
वहाँ और भी थे; उनके शरीर
तैयार हो रहे थे ।
मैं इसे अब ऐसे देखती हूँ ।
चीख़ों की एक नदी की तरह ।
इतनी पीड़ा है इस दुनिया में – आकारहीन
व्यथा देह की, जिसकी भाषा
है भूख –
और हॉल में गुलाबों के डब्बे :
उनके मायने ही हैं
उथल-पुथल । और फिर शुरू होता है
विवाह का भीषण दान-अनुष्ठान,
पति और पत्नी
चढ़ते हैं हरी पहाड़ी सुनहरे प्रकाश में
वहाँ तक जिसके बाद कोई पहाड़ी नहीं रह जाती
रह जाता है तो बस
एक सपाट मैदान जिसे रोके खड़ा होता है आकाश ।
यह रहा मेरा हाथ, उसने कहा ।
पर वह बहुत पहले की बात है ।
यह रहा मेरा हाथ जो तुम्हें कभी चोट नहीं पहुँचाएगा ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : झरना मालवीय