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विश्वास / शुभा द्विवेदी

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किसी का अचानक यूँ जाना
अनायास ही गहन अंधकार का हो जाना
लेकिन जो गया वह प्रकाश में समाहित हो गया
अंत जीवन का, या अनंत की शुरुआत
किससे पूछे मन ये प्रश्न
जो गया, वह कहाँ गया, किसमें विलीन हो गया
प्रकाशपथ पर गतिमान कैसे?
बरगद का गिरना जैसे
या छाया का विलग होना जैसे
सूर्य भी तो रोज जाता है अस्ताचल में
लेकिन उदयाचल से पुनः निकलता है
यह भरोसा है सिर्फ या वास्तविकता है
जो गया वह आया नहीं, जन्म मरण से मुक्त,
फिर पुनर्जन्म की अवधारणा क्यों?
अगर आना होगा तो किस ओर से आएगा
आज तक ढूँढती हैं आँखे
देखती रहती हैं दक्षिण की ओर
दैहिक आँखे तो नहीं ढूँढ पाती
लेकिन मन की आँखे यादों के झरोखों में ढूँढ ही लेती हैं
निर्झर बहता नीर और उसमे समाता मन
मिल जाता है वह जो जाने कहाँ चला गया।