विश्वास है / महेन्द्र भटनागर
विश्वास है —
एक दिन काली घटाओं से घिरा आकाश
खुल कर ही रहेगा !
धूप के दिन
एक क्या अगणित
धरा पर
ज्योति में डूबी
सरल उजली हँसी हँसते हुए
आकर रहेंगे !
तुम रुको मत
इस बरसते कल्प में जीवन-प्रवासी,
भीग जाने का कहीं भय
रोक ले गति को न,
तुम इतना करो विश्वास —
आगे लाल-किरणें राह में
बिखरी मिलेंगी !
सूख जाएगा सभी जल
आज जो प्रति अंग को कंपित किये है,
हार जाएगा
सतत गतिवान धारा से
विरोधी मेघ
जो जल-कण अमित संचित किये है !
तम भरी गहरी घटाओं के तले
है टिमटिमाता दीप
मानव के अमर विश्वास का !
पर, जो अँधेरे की सघनता में
कहीं खो-सा गया है;
ढूँढ़ उसको तुम
जलाओ दीप अपना,
एक से अगणित जलेंगे दीप जगमग !
जो तमिस्रा भंग कर
नव स्वर्ण-पथ-रचना करेंगे !
क्योंकि
भावी विश्व के विश्वास की
लौ जल रही है !
इसलिए विश्वास है —
छायी हुई संध्या समय संक्रांति की
धूमिल अँधेरी पार कर
नव लाल जीवन का सबेरा
व्योम से लाकर रहेगी !