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विश्वासघात / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
मैंने नदी में जाल फेंका,
मछलियाँ पकड़ने को,
जब समेटा
खाली था!
बार-बार फेंका
बार-बार खाली!
मुझे बड़ी कोफ्त हुई
कि धोखेबाज मछलियाँ फँस नहीं रही हैं
और लहरें हैं, कि
मुझ पर हँस रही हैं!
मछलियों को
उनके इस व्यवहार पर मैंने
ओछी टुच्ची गलियाँ दी!
नदी पर भी क्रोध आया-
साथ नहीं देती है!
दुकानदार पर भी मैं चिढ़ा-
बड़े-बड़े चौखानों वाला
जाल दिया हरमी ने!
उन मछली चोरों को शाप दिया
जो घुप्प अँधेरों में
मछलियाँ ले जाते हैं!
फिर भी मुझे
सबसे ज्यादा गुस्सा
मछलियों पर ही आया
और आता रहा!
मुझे उन पर ही सबसे ज्यादा भरोसा था
कि सहयोग करेंगी-
फँसेगी!