विषकन्याएँ / रंजना मिश्र
उसकी चुप्पी थी
पहाड़ों-सी
सहनशीलता समंदर-सी
औरत नदी होना चाहती थी
उसके हाथों में था
टूटा दर्पण
टुकड़ों में था अस्तित्व उसका
वह
प्रकृति की सबसे अनूठी रचना थी
उसने आग ढूँढ़ी
चूल्हा सुलगाया
उसकी विजय का प्रतीक बनी
औरत का कोई घर न था
वह उसके पीछे चली
उसने जंगल काटे
वनलताएँ जलाईं
पर्वतों को चीरा
उसके पीछे
चलते-चलते
वह अपने अंत तक गई
कुछ—
अपने अंत के बाद भी बची रहीं
समुद्र मंथन के फेनिल विष की धार में
डूबते-उतराते किसी तरह किनारे आ लगीं वे
तलाशने लगीं अपने माथे की लकीरों के बीच
अपने घर को जाने वाली पगडंडियाँ
कोई रास्ता उनके घर को न जाता था
उन्होने ख़ुद तक वापसी के रास्ते ढूँढ़े
चलते-चलते ख़ुद तक आईं
चारे बोए
जानवरों का सानी-पानी किया
तमाम खरपतवार
निकाल फेंका
अपनी पीठ को लोहे-सा तपाकर
अपने संसार में जुट गईं
अपने शिशुओं को थपकी देते
वे अक्सर गुनगुना लेती हैं
वे—
चरित्रहीन नामाक़ूल औरतें
विषकन्याएँ
सभ्यता के गले में फाँस की तरह अटकीं!