विस्थापन / स्मिता सिन्हा
(1)
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
हम छोड़ देते हैं अपनी मिट्टी को
और भागते है ज़िंदगी के पीछे बेतहाशा
पर हमारी जड़ें दबी रह जाती हैं
वहीं कहीं उसी मिट्टी के नीचे...
(2)
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
अपने सपनों में,अपनी स्मृतियों में,
अपनी साँसों और सिलवटों में,
भाषा,शब्दों और विचारों में,
हम विस्थापित होते हैं
हर नये रिश्ते में,
अपनी रुह तक में भी...
(3)
हम खुद में ही खुद को छोड़कर
बढ़ते जाते हैं आगे
और पीछे छूटती जाती हैं
जाने कितनी विस्थापित परछाइयाँ
विस्थापन लगातार बेदखल करता जाता है
हमारी तमाम पुरानी चाहनाओं को
उस एक अप्राप्य की चाह में...
(4)
विस्थापन किस्तों में ख़त्म करता है हमें
और हमारे मिटते ही
अवतरित होता है एक नया कालखंड
अपने होने वाले विस्थापन के
कई नई वजहों के साथ
विस्थापन ही रचता है
चीखती,चिल्लाती, झकझोरती सी
उन आवाजों को
जो सच सच कह जाती हैं
कि हर विस्थापन का अंत
वापसी तो बिल्कुल नहीं होता...