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विस्मृति का रीसायकल बिन / शहनाज़ इमरानी
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अपने मायनों के साथ ही
आया उपेक्षा शब्द जीवन मे
सहजे गए अपनेपन से
हाथों ने उलीचा अपना ही दुख
उदासी में सूखते होंठों पर
हँसी का लिप-गार्ड लगाकर
समझी कि सब कुछ है ‘सामान्य’
यक़ीन था कि शाश्वत है ‘प्रेम’
पर उदासीन चीज़ों का क्या?
एक तीसरा ख़ाना
जबकि सही ग़लत के लिए है
दो ही ख़ाने
कुछ देर में अनुपस्थिति से उपस्थिति की तरफ़
लौटते हुए मैंने जाना कि
सभी पहाड़ों से लौट कर नहीं आती आवाज़ें
और नदी पहाड़ों में बहते रहने से
नहीं हो जाती पहाड़ी नदी
अन्दर आई बाढ़ के उतरने के बाद
आख़िर एक चोर दरवाज़ा
तलाश ही लिया ख़ुद के लिए
अब बची हुई औपचारिकता में
बातों के वही अर्थ हैं
जो होते हैं आमतौर पर।