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वीर / प्रकीर्ण शतक / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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अछि उतुंग हिमाचलक शृंग, सिन्धु गंभीर
पस्त एक, उत्थर अपर निरखि पुरुष मति धीर।।1।।
पड़ओ पानि पाथर बहओ अन्हड़ झाँट बसात
वज्रपात होइतहुँ हिलय नहि गिरि गौरव गात।।2।।
उमड़ि तड़ित तरुआरि लय तापक कय सिर छेद
हरित भरित जगती करय वारिद वीर अभेद।।3।।
ललकि झलकि रवि केसरी उदय गिरिक चढ़ि शृंग
तिमिर करी हत कर नखत जत तत रक्त प्रसंग।।4।।
गलि पचि जाय हिमाचली, सुखि रुखि सिन्धु चटाय
सेरा जाय रवि - मण्डलोवीर न पीठ देखाय।।5।।
असह रौद उत्तापसँ नहि बचबाक उपाय
धीर पथिक केँ यदि न हो रण तरु छाँह सहाय।।6।।
ने नूपुर रव रजना, ने बीणा झंकार
युद्ध नगाड़ा सुनि युवक झुमल गीत हुंकार।।7।।
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वीर-शृंगार-प्रणय वचन सुनि प्रेयसी, बाम बाहु कसि लेल
रणक नगाड़ा सुनि तरुण दहिन हाथ असि लेल।।8।।
समर जनिक सुख सेज थिक, नारि चटुल तरुआरि।
रक्त रंग रंजित जयतु युवक विजय - रति कारि।।9।।
समर स्मर अरि - नारिकेँ जीतल भुज बल चापि
उर विदारि, कच नोचि, पद चापल पुरुष प्रतापि।।10।।
बीर पत्नी - घायल आयल रथ लदल पति सेनानी घूरि
मलहम लेपल पीठ धनि, कर पहिराओल चूड़ि।।11।।
आहत पहु मुह देखि बहु कसइत कोमल बाँहि
पीठ क क्षत छुबि चौंकि झुकिं, हटलि चेहाय कराहि।।12।।