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वीर जवान / कविता भट्ट

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लौहस्तम्भ-सा
खड़ा एक मानव
हाड़ कँपाती
जो शीत- शिशिर में
बर्फीली हवा,
रात- दोपहर में
चुभती धूप
या अंध तिमिर में
सहता जाता
इसमें भी तो हैं ही
संवेदनाएँ
इसे भी तड़पाती
हैं वेदनाएँ
यद्यपि, कालगति
किन्तु, तथापि
न विचलित होता
अश्रु बहाता,
न कभी भी रोता;
मातृभूमि के
उर- माल सजाने,
गौरव- मोती
साहस के धागे में
सदा पिरोता
विजय-इतिहास
अपने सारे
यह बलि चढ़ाता
रक्त-संबंध
है राष्ट्र-परिवार
इसका सारा,
भारत का महान
वीर जवान
कविता नित करे
दण्डवत प्रणाम.
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