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वृंदावन प्रस्थान / सूरदास
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महरि-महरि कैं मन यह आई ।
गोकुल होत उपद्रव दिन प्रति, बसिऐ बृंदावन मैं जाई ।
सब गोपनि मिलि सकटा साजे, सबहिनि के मन मैं यह भाई ।
सूर जमुन-तट डेरा दीन्हे, बरष के कुँवर कन्हाई ॥1॥