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वृत्तस्वरूप संसार / महेश चंद्र द्विवेदी

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यद्यपि शून्य अरूप है,
परंतु
मानव कल्पना में वृत्त का सूक्ष्म रूप है ।
बृह्म निराकार है,
पर मानव मन में,
अनादि है, असीम है, कहीं न उसका पारावार है ।

वृत्त-सूक्ष्म हो अथवा वृहत
उसमें कितनी ही गति से दौड़े कोई बिंदु,
पाता नहीं है कभी- आदि अथवा अंत ।
बृह्मांड- कहां से आता है
और कहां को जाता है,
कोई नहीं जान पाता है, क्योंकि वह वृत्ताकार है ।

प्रारम्भ में बृह्मांड था
अनंत गुरुत्वाकर्षण युक्त एक पिंड,
अर्थात एक सूक्ष्मतम वृत्त ।
महाविस्फोट के फलस्वरूप
बने जो असंख्य गृह, अनंत तारे
वृत्त की सीमा में आवृत्त हुए सारे ।
वे स्वयं सभी वृत्ताकार हैं,
वृत्त की सीमा में घूमते हैं,
सीमा से बाहर आने पर हो जाते हैं नष्ट.
कोई तारा
जब मृत्यु को प्राप्त होता है
तो हो जाता है एक ब्लैकहोल- एक अति-सूक्ष्म वृत्त.
इलेक्ट्रौन भी घूमते हैं
ऐटम में न्यूक्लिअस के चारों ओर,
और साधे रहते हैं केन्द्र की डोर ।
किसी कारणवश यदि यह डोर टूट जाती है,
तो पकड़ लेते हैं
किसी अन्य वृत्त का छोर.
मानव मन है एक शून्य- एक परम सूक्ष्म वृत्त,
अतः प्रायः रहता है सारहीन में दत्तचित्त ।
मानव बना लेता है इसे महावृत्ताकार,
यद्यपि जानता है कि
शून्य से जनमा है वह,
हो जायेगा पुनः शून्याकार ।